
बड़े बुर्जुगों ने बताया कि प्राचिनकाल में निकटवर्ती रूपनगर के शासक ने प्रतिशोध की भावना से कस्बे के परकोटे के बाहर बस स्टेंड के निकट खड़ी होली को चुराने का प्रयास किया था। इस घटना के बाद तत्कालिन स्थानीय शासक ने हिफाजत के लिए परकोटे के भितर होली रोपने के आदेश दिए। इसके तहत होली को मूल स्थान पर रोपने की औपचारिकता की जाती हैं और बाद में इसे कस्बे के भितर रोपा जाता हैं। इसके बाद होलिका दहन के लिए एक बार फिॅर मूल स्थान पर ले जाया जाता हैं।
इस परंपरा से जाहिर हैं कि होली को तत्कालिन शासक व प्रजा अपनी नाक का सवाल मानती थी और आज भी इस परंपरा का ज्यों का त्यों निर्वाह जारी हैं।
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